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हमारी दुनिया से नदीय डॉल्फिन विलुप्त होने के कगार पर है। दक्षिण अमरीका की आमेजन, चीन की यांगत्से, पाकिस्तान की सिंधु और भारत स्थित गंगा में नदीय डॉल्फिन की चार प्रजातियां पायी जाती थीं। डॉल्फिन दशक भर पहले चीन से विलुप्त हो चुकी है। आमेजन और सिंधु में भी बहुत कम रह गई हैं। एक आकलन के अनुसार गंगा में इसकी संख्या 1000 है। अनुकूल परिस्थितियों के चलते भागलपुर क्षेत्र में यह सर्वाधिक है। इस कारण यहाँ अभयारण्य बनाया गया। दुनिया भर के पर्यावरणिक संगठन यहाँ के लिए चेतस हैं। पर अपनी सरकार ही गंभीर नहीं है। डॉल्फिन को राष्ट्रीय जल जीव घोषित कर वाहवाही लूटने के अलावा और कोई ठोस प्रयास नजर नहीं आता। किसी जीव की संख्या स्थिर होने का मतलब है वह अपनी प्रजनन क्षमता खो रहा है। जब तक गंगा में डॉल्फिन है जैव विविधता को सुरक्षित माना जा सकता है। यह इकलौता जीव है जिसे नदी की स्वच्छता का प्रतीक माना जाता है। हमें डॉल्फिन के होने की जरूरत को समझना होगा। राष्ट्रीय जल जीव गांगेय डॉल्फिन को बचाने के लिए भागलपुर में कहलगांव से सुल्तानगंज के बीच गंगा को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है, लेकिन पर्यावरणीय और मानवीय हस्तक्षेप की वजह से डॉल्फिन की सांसे घुट रही हैं। डॉल्फिन आहार और अधिवास दोनों के ही संकट से जूझ रही है। एक गैर सरकारी संस्था के सर्वे में विक्रमशिला गांगेय अभयारण्य में डॉल्फिन की संख्या सर्वाधिक 238 तक आंकी गई थी, पर पिछले कुछ वर्षों से यह घटकर 207 पर स्थिर है। यह प्रवृत्ति इसके मंद पड़ते प्रजनन दर और अन्य क्षेत्रों में पलायन का संकेत कर रही है। गांगेय डॉल्फिन को बचाने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं चिंतित तो हैं लेकिन वह व्यवस्था से मजबूर हैं। आलम यह है कि अभयारण्य बनने के बाद से अब तक सरकारी स्तर पर डॉल्फिन की कोई गणना नहीं की जा सकी है। प्रतिबंधित क्षेत्र के बावजूद माफिया यहां धड़ल्ले से मत्स्यकी में लिप्त हैं। इनके द्वारा गंगा के तल तक पहुंच जाने वाले महीन जाल के प्रयोग ने नदी तंत्र की भोजन श्रृंखला को भी बाधित कर दिया है। छोटी मछलियां डॉल्फिन का आहार हैं, पर महीन जालों से इनका शिकार किया जा रहा है। परिपक्व नहीं हो पाने से मछलियों के प्रजनन दर में कमी आई है। गंगा में रेहू और कतला जैसी मछलियों की संख्या कम हो गई है, जबकि दो से तीन इंच लंबी सिंओरा और बुआरी जैसी मछलियों की संख्या बढ़ गई है। बुआरी के गंदे पानी में पनपने के चलते यह स्थिति डॉल्फिन के लिए शुभ नहीं है। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक गंगा में औद्योगिक कचरे एवं रासायनिक अवशिष्ट बहाए जाने से बीओडी (बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड) स्तर 324 एमजी प्रति लीटर तक पहुंच गया है। जबकि इसकी मानक मात्र 30 मिलीग्राम प्रति लीटर ही होनी चाहिए। यह स्थिति डॉल्फिन और अन्य जल जीवों के लिए खतरनाक है। उत्तराखंड में टिहरी से लेकर पश्चिम बंगाल के फरक्का तक कई बड़े बांध बना दिए से गंगा की अविरलता बाधित हुई है। 1 गंगा पहाड़ों से गुजरते हुए भारी मात्र में गाद लाती है। फरक्का डैम के बनने के बाद गाद की अधिकांश मात्र गंगा के मुहाने तक पहुंचने के बजाय रास्ते में ही रह जाती हैं। नदी की पेटी उथली होती जा रही है। जहाज परिचालन के लिए राष्ट्रीय जल मार्ग प्राधिकरण की ओर से गंगा में ड्रेजिंग भी की जा रही है। अंधी होने के चलते प्रतिध्वनी के सहारे चलने वाली डाल्फिन इससे बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। दो दशक पहले विश्व भर में नदीय डॉल्फिन की चार प्रजातियों को चिन्हित किया गया था। इनमें गांगेय डॉल्फिन के अलावा चीन की यांगत्से में पाई जाने वाली बायजी, पाकिस्तान की सिंधु नदी में भुलन और आमेजन नदी में पिंक डॉल्फिन थीं। वर्ष 1996 में बायजी प्रजाति की डॅल्फिन की संख्या 400 आंकी गई थी, पर चीन में हुए अंधाधुंध विकास के चलते 2006 में यह प्रजाति विलुप्त हो गई। अन्य दो प्रजातियों की स्थिति भी कमोबेश यही है। यही वजह है कि आज पर्यावरण से जुड़े विश्व के कई संगठन गांगेय डॉल्फिन में दिलचस्पी ले रहे हैं। डाॅल्फिन विशेषज्ञ प्रोफेसर सुनील चौधरी की मानें तो अमेरिका के फ्लोरिडा स्थित संगठन ट्रोपिकल डॉल्फिन रिसर्च सेंटर, ह्वेल और डॉल्फिन पर काम करने वाली विश्व की सबसे बड़ी संस्था ह्वेल एंड डॉल्फिन कंजरवेशन सोसाइटी, इंग्लैंड, टोकाई यूनिवर्सिटी जापान आदि के वैज्ञानिक गांगेय डॅल्फिन के संरक्षण और मछुआरों के जीवन सुधारने में प्रयासरत हैं। ताकि गंगा की मूल प्रकृति भी बनी रहे और संरक्षण का काम भी हो सके। गैर सरकारी संगठनों के जागरूकता कार्यक्रम की वजह से डॉल्फिन को मारे जाने की घटनाएं तो थम चुकी हैं, पर मानवीय हस्तक्षेप आज भी इनके जीवन को प्रभावित कर रहा हैं। |
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